वीरेंद्र यादव। पहले पत्रकार, फिर संपादक और अब दुकानदार

वीरेंद्र यादव। पहले पत्रकार, फिर संपादक और अब दुकानदार

सबसे महंगी पुस्‍तक बेच रहे हैं हम
किताब के पहले ग्राहक बने नालंदा के कौशल कुमार
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पुस्‍तक: बिहार में मंडल राजनीति का उत्‍तरार्द्ध
लेखक : वीरेंद्र यादव (विधान सभा प्रेस सलाहकार समिति के विशेष आमंत्रित सदस्‍य)
कीमत : 1100 (ग्‍यारह सौ की पुस्‍तक सिर्फ 1100 में)
हाथोहाथ खरीदने के लिए संपर्क: 9199910924 (ऑनलाईन डिलीवरी नहीं)
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वीरेंद्र यादव। पहले पत्रकार, फिर संपादक और अब दुकानदार। दुकानदार वाली भूमिका की शुरुआत 17 फरवरी से हुई। रविवार 16 फरवरी को हमारी पुस्‍तक – बिहार में मंडल राजनीति का उत्‍तरार्द्ध – का लोकार्पण बिहार विधान परिषद के एनेक्‍सी सभागार में हुआ। इसका लोकार्पण 1977 के चुनाव में निर्वाचित 5 विधायक यथा डॉ रमाकांत पांडेय, गौतम सागर राणा, विक्रम कुंवर, विद्याभूषण सिंह और राधिका देवी ने संयुक्‍त रूप से किया। इस मौके पर भारतीय प्रशासनिक सेवा के सेवानिवृत्‍त अधिकारी डॉ गोरेलाल यादव भी उपस्थित थे।
Birendra Yadav Foundation की स्‍थापना के दो वर्ष पूरे होने के मौके पर एनेक्‍सी सभागार में 1977 के विधायकों का सम्‍मान समारोह आयोजित किया गया था। इसका आयोजन Birendra Yadav Foundation और वीरेंद्र यादव न्‍यूज ने संयुक्‍त रूप से किया था। वीरेंद्र यादव न्‍यूज के पास उपलब्‍ध डाटा के अनुसार,  बिहार में 1977 के 32 विधायक अभी सामाजिक एवं राजनीतिक रूप से सक्रिय हैं। हमने लगभग 25 विधायकों से बातचीत की और कार्यक्रम की विस्‍तृत जानकारी देते हुए आमंत्रित किया। उनमें से 5 लोग शामिल हो सके। इन लोगों को पत्रिका की ओर से सम्‍मानित किया गया। इसी कार्यक्रम के हिस्‍से के रूप में पुस्‍तक लोकार्पण भी शामिल था। पुस्‍तक लोकार्पण के बाद सम्‍मान समारोह शुरू हुआ। इस दौरान जय प्रकाश के दौर के दो गीत भी प्रमोद यादव द्वारा प्रस्‍तुत किया गया।
बिहार में मंडल राजनीति का उत्‍तरार्द्ध तीन खंडों में विभाजित है। इसके पहले खंड में विभिन्‍न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित आलेख को संकलित किया गया है। दूसरे खंड में किशन पटनायक, बलिराम भगत, आचार्य राममूर्ति, राम सुंदर दास, सत्‍येंद्र नारायण सिंह, रामलखन सिंह यादव, भोला सिंह (बेगूसराय), सदानंद सिंह, शिवानंद तिवारी, रंजन यादव, अब्‍दुलबारी सिद्दीकी, नरेंद्र नारायण यादव और महेश्‍वर प्रसाद यादव के इंटरव्‍यू को शमिल किया गया है। इसमें से अधिकतर इंटरव्‍यू पटना के हिंदुस्‍तान में प्रकाशित हैं। तीसरे खंड में पंचायत उपचुनाव को लेकर मेरा निजी अनुभव है। हम दिसंबर 2012 में औरंगाबाद जिले की बभनडिहा पंचायत में मुखिया पद के लिए हुए उपचुनाव में उम्‍मीदवार बने थे। इसके अनुभव को हमने अप्रैल-मई 2013 में 42 किस्‍तों में फेसबुक पर अपलोड किया था। इस दौरान हमने एक उम्‍मीदवार के समक्ष खड़ी चुनौती यानी अपनी सीमा और वोटरों की आकांक्षा के बीच संतुलन बनाने की दिक्‍कतों को साझा किया। यह सीरिज काफी रोचक बन पड़ा है। पुस्‍तक को मार्जिनाइलज्‍ड प्रकाशन ने छापा है। हर आलेख के साथ उसके प्रकाशन की तिथि और पत्र-पत्रिका का नाम भी दिया गया है। 
इसी पुस्‍तक को लेकर हम सोमवार को बाजार में उतरे थे। किताब प्रकाशित हुई है तो ग्राहक भी चाहिए। हमने तय किया है कि पुस्‍तक किसी को फ्री में नहीं देना है। जो शुभेच्‍छु समय-समय पर सहयोग करते रहे हैं, उन्‍हें सौजन्‍य प्रति देंगे। उनका हक बनता है। यदि वे कीमत देते हैं तो लेने परहेज भी नहीं करेंगे, हालांकि ऐसे लोगों से हम कीमत मांगने का साहस नहीं जुटा पाएंगे।
रविवार को लोकार्पण समारोह समाप्‍त होने बाद एक साथी एनेक्‍सी सभागार तक पहुंचे। तब तक सभागार बंद हो चुका था। सीढ़ी पर ही मुलाकात हुई। साथ में नीचे में आए। उन्‍होंने अपना परिचय दिया और बताया कि पहले भी मुलाकात हो चुकी है। बात आगे बढ़ी। उन्‍होंने बताया कि वे नांलदा जिले की एक पंचायत के पैक्‍स अध्‍यक्ष हैं। उन्‍होंने कहा कि किताब की एक कॉपी चाहिए। हमने बताया कि कीमत 11 सौ रुपये है। उन्‍होंने कहा कि ठीक है। फिर हमने कहा कि किताब सोमवार को ही दे पाएंगे। अगले दिन सुबह में बात हुई तो तय हुआ कि आर ब्‍लॉक की ओर कहीं पर मुलाकात हो जाएगी। शाम को विधान मंडल परिसर में मुलाकात हुई। उन्‍होंने पुस्‍तक की एक कॉपी खरीदी और साथ में तस्‍वीर भी खिंचवायी। हमारे मन में उत्‍सुकता स्‍वाभाविक थी कि ये व्‍यक्ति 11 सौ की पुस्‍तक क्‍यों खरीद रहे हैं। बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा। उन्‍होंने कहा कि पढ़ने का शौक है। पांच लाख रुपये से ज्‍यादा का किताब खरीद चुके हैं। गणित विषय से नेट कंपलिट कर चुके हैं और ढाई साल तक बच्‍चों को पढ़ा भी चुके हैं। राजनीतिक करने का शौक था तो चुनाव भी लड़ लिये। जिला परिषद में सफलता नहीं मिली तो पैक्‍स अध्‍यक्ष में जीत हासिल हुई। इस पुस्‍तक के पहले ग्राहक ने यह भी कहा कि आपकी जो पहले वाली पुस्‍तक है, उसे भी लेते आइएगा, खरीद लेंगे।
दरअसल कौशल कुमार से मिलना इसलिए महत्‍वपूर्ण नहीं है कि उन्‍होंने हमारी पुस्‍तक खरीदी। उनका मिलना इसलिए महत्‍वपूर्ण है कि राजनीति में व्‍यस्‍त एक व्‍यक्ति पढ़ने में भी रुचि रखता है। किताबें खरीदता है और सहेजता भी है। वे अतिपिछड़ी जाति की राजनीति को लेकर काफी संजिदा हैं और ईबीसी के सत्‍ता में  हिस्‍सेदारी को लेकर भी गंभीर हैं। 
किताब बेचने का क्रम तो जारी रहेगा। साथ ही पाठकों के साथ संवाद का सिलसिला भी निर्बाध बना रहेगा। अपने पाठकों से हम आग्रह करेंगे कि पुस्‍तक खरीदें ताकि किताब भी जीवित रहे और संवाद भी। 

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