
बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है - इंजीनीयर मो0 इस्तेयाक अहमद
लखनऊ - इंजीनीयर मो0 इस्तेयाक अहमद ने कहा कि मै लखनऊ की सैर करने आया हूँ| बड़ा इमामबाड़ा लखनऊ की एक ऐतिहासिक धरोहर है इसे भूल भुलैया भी कहते हैं इसको अवध के नवाब अशिफुद्दौला ने (1784 -94) के मध्य बनवाया था,इसे भूल भुलैया के नाम से भी जाना जाता है।
बड़ा इमामबाड़ा(भूल भुलैया)यहां की दीवारों के कान होते हैं..
बनारस की सुबह और अवध यानी लखनऊ की शाम बड़ी हसीन होती है। खासतौर से ऐतिहासिक इमारतों के आसपास शाम का नजारा देखते ही बनता है। आज बात करते हैं लखनऊ के बड़ा इमामबाड़ा की। दीवारों के भी कान होते हैं, यह कहावत जहां से शुरू हुई उसी भूल-भुलैया की।
1784 में अकाल राहत परियोजना के तहत अवध क्षेत्र के नवाब आसफ-उद-दौला ने इसे बनवाया था। इसे नवाब की कब्र के कारण आसफी इमामबाड़ा और भ्रामक रास्तों के कारण भूल-भुलैया भी कहा जाता है। गोमती नदी के किनारे स्थित बड़ा इमामबाड़ा की वास्तुकला, ठेठ मुगल शैली को प्रदर्शित करती है।
अवध क्षेत्र के अंदर वर्ष 1784 में भयंकर अकाल पड़ा। जिसके बाद राहत परियोजना के तहत रूमी गेट के साथ ही बड़ा इमामबाड़ा का निर्माण शुरू कराया गया। ताकि लोगों को रोजगार मिले। इस इमामबाड़ा का निर्माण और अकाल दोनों ही 11 साल तक चले। इमामबाड़ा के निर्माण में करीब 20000 श्रमिक शामिल थे। इस भवन में कुल 3 विशाल कक्ष हैं। जिसमें से इसका केंद्रीय हॉल दुनिया का सबसे बड़ा वॉल्टेड चैंबर बताया जाता है। इस विशाल इमामबाड़ा का गुंबदनुमा हाल 50 मीटर लंबा और 15 मीटर ऊंचा है। उस जमाने में इसके निर्माण में कुल 8 से 10 लाख रुपये की लागत आई थी।
बड़ा इमामबाड़ा के अंदर जाने के लिए यहां 1024 छोटे-छोटे रास्तों का जाल है, वहीं बाहर निकलने के लिए सिर्फ 2 रास्ते हैं। यह रास्ते दीवारों के बीच छुपी हुई 20 फीट मोटी लंबी-लंबी गलियों से होकर गुजरते हैं। बड़ा इमामबाड़ा की छत पर जाने के लिए 84 सीढ़ियां हैं जो ऐसे रास्तों से होकर जाती हैं। इसीलिए इसे भूल भुलैया के नाम से भी जाना जाता है। यहां आकर अच्छे से अच्छा पर्यटक भी रास्ता भूल जाता है। 84 सीढ़ियों का गणित याद नहीं रखा तो भ्रमजाल में फंसकर आपका रास्ता भटकना तय है।
भूल भुलैया के कुछ रास्ते तो इतने खतरनाक थे कि लोग इस में फंस कर अपनी जान तक गंवा चुके हैं। मान्यता है कि भूल भुलैया भूमिगत सुरंगों का ऐसा जाल है जो इमामबाड़े को दिल्ली कोलकाता और फैजाबाद से जोड़ता है हालांकि अब लोगों की सुरक्षा को ध्यान में रखकर इन्हें बंद कर दिया गया है।
इमामबाड़े में एक सुंदर पांच मंजिला सीढ़ीदार कुआं है जिसे बावड़ी भी कहते हैं। यह बावड़ी गोमती नदी से जुड़ी हुई है। पानी के ऊपर इसकी सिर्फ दो मंजिले ही दिखती हैं।
बड़ा इमामबाड़ा की सबसे रोचक बात यह है कि यह ना तो पूरी तरह से मस्जिद है और ना ही मकबरा है। कमरों का निर्माण और दीवारों के उपयोग में सशक्त इस्लामी प्रभाव स्पष्ट रूप से झलकता है।
इस भवन के झरोखे से आप इसमें प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को देख सकते हैं जबकि वह व्यक्ति आपको बिल्कुल भी नहीं देख सकता है। कहा जाता है कि ऐसा झरोखा किसी भी भवन में आज तक उपलब्ध नहीं है।
इस इमारत को बनाने में कहीं भी लोहे का इस्तेमाल नहीं किया गया है, जो इसकी सबसे मुख्य विशेषता है। इसके साथ ही इसमें किसी भी यूरोपीय शैली की वास्तुकला को शामिल नहीं किया गया है।
दीवारों के भी कान होते हैं। यह कहावत यहीं से शुरू हुई। दरअसल भूल भुलैया की बालकनी पूरे विश्व में प्रसिद्ध है इसका प्रमुख कारण यह है कि इस बालकनी में अगर आप माचिस की तीली भी जलाएंगे तो बालकनी के दूसरे कोने तक आसानी से उसकी आवाज सुनाई पड़ती है। भूल भुलैया की कई दीवारें ऐसी खोखली बनाई गई हैं कि एक कोने पर खड़े व्यक्ति की फुसफुसाहट दूसरे छोर पर खड़े व्यक्ति को आसानी से सुनाई देती है।
इंजीनीयर मो0 इस्तेयाक अहमद पटना बिहार
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