बिहार चुनाव, 2025 - महागठबंधन में 'दोस्ताना संघर्ष' और बिखरती वाम एकता
जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 04 नवम्बर ::
बिहार की राजनीति हमेशा से ही अप्रत्याशित गठबंधनों, जातीय समीकरणों और जमीनी संघर्षों का एक जटिल ताना-बाना रही है। इस चुनावी रणभूमि में, जहाँ हर वोट का हिसाब रखा जाता है, वहीं गठबंधनों के भीतर का गणित अक्सर बाहर के समीकरणों से ज्यादा पेचीदा हो जाता है। ऐसा ही एक नजारा बिहार विधानसभा चुनाव, 2025 में देखने को मिल रहा है, जहाँ राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (NDA) को चुनौती देने के लिए बना 'महागठबंधन' अपने ही अंतर्विरोधों में फँसता नजर आ रहा है।
इस सियासी ड्रामे का सबसे दिलचस्प अध्याय 'वाम एकता' के नाम पर लिखा गया, जो शुरू होने से पहले ही बिखर गया। महागठबंधन के भीतर चल रही खींचतान, विशेषकर कांग्रेस और वाम दलों के बीच, ने एक ऐसी स्थिति पैदा कर दी है जहाँ 'दोस्ताना संघर्ष' (Friendly Contest) के नाम पर सहयोगी दल ही एक-दूसरे की जड़ें खोदते नजर आ रहे हैं।
कई वर्षों तक बिहार की मुख्यधारा की राजनीति से हाशिए पर रहने के बाद, वाम दलों के लिए यह चुनाव एक बड़ा अवसर लेकर आया है। राष्ट्रीय जनता दल (RJD) के नेतृत्व वाले महागठबंधन ने एक व्यापक सामाजिक- राजनीतिक इंद्रधनुष बनाने के प्रयास में वाम दलों को भी साधा। दशकों बाद, बिहार के तीन प्रमुख वाम दल, भाकपा (माले) लिबरेशन, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (भाकपा), और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) (माकपा) एक साथ एक बड़े गठबंधन का हिस्सा बने हैं।
कागज पर यह एक मजबूत रणनीति थी। RJD का M-Y (मुस्लिम-यादव) समीकरण, कांग्रेस का पारंपरिक सवर्ण और दलित वोट बैंक, और वाम दलों का समर्पित कैडर और अति-पिछड़ों-दलितों के बीच जमीनी पकड़, यह सब मिलकर NDA के लिए एक बड़ी चुनौती पेश कर सकते थे।
बातचीत के लंबे दौर के बाद, महागठबंधन में सीटों के तालमेल के तहत वाम दलों के लिए कुल 33 सीटें छोड़ी गईं। इसमें सबसे बड़ा हिस्सा भाकपा (माले) को मिला, जो बिहार में अन्य दो वाम दलों की तुलना में कहीं अधिक मज़बूत संगठनात्मक आधार रखती है। जैसा कि राजनीतिक विश्लेषक मानते भी हैं, "बिहार में सक्रिय वाम दलों में भाकपा (माले) की बात छोड़ दें तो भाकपा एव माकपा और भी कमजोर पड़ते दिख रहे हैं।"
लेकिन सीटों का बँटवारा जितना सीधा दिखा, उतना था नहीं। पेंच तब फँसा जब कांग्रेस के साथ सीटों पर बातचीत उलझी। कांग्रेस अपनी उम्मीद से ज्यादा सीटों पर अड़ी रही, जिससे RJD को अपने कोटे से और सीटें छोड़नी पड़ीं। इस खींचतान का सीधा असर वाम दलों के आंतरिक तालमेल पर पड़ा। 'वाम एकता' का जो प्रयास किया जा रहा था, वह कांग्रेस के साथ उलझे पेंच में खुद ही उलझकर रह गया।
जैसे ही नामांकन की प्रक्रिया आगे बढ़ी, महागठबंधन के भीतर का 'दोस्ताना संघर्ष' खुलकर सामने आ गया। यह कोई नई रणनीति नहीं थी, अक्सर पार्टियाँ जमीनी कार्यकर्ताओं को संतुष्ट करने या अपनी-अपनी जमीन टटोलने के लिए ऐसा करती हैं। लेकिन इस बार यह 'संघर्ष' रणनीतिक कम और अराजक ज्यादा दिखा। इसका केंद्र बनी वे सीटें, जहाँ कांग्रेस और वाम दलों (विशेषकर भाकपा) के हित सीधे टकरा रहे थे।
बेगूसराय जिला की बछवाड़ा सीट दशकों से भाकपा का गढ़ रही है। इसे 'बिहार का लेनिनग्राद' कहे जाने वाले क्षेत्र का हिस्सा माना जाता है। भाकपा के लिए यह सीट सिर्फ एक विधानसभा क्षेत्र नहीं है, बल्कि उसकी बची-खुची राजनीतिक प्रतिष्ठा का प्रतीक थी। महागठबंधन के भीतर, यह सीट स्वाभाविक रूप से भाकपा के खाते में जानी तय मानी जा रही थी। लेकिन कांग्रेस ने यहाँ अपना दावा ठोक दिया। कांग्रेस का तर्क था कि उसका भी यहाँ "अपना जनाधार वाला क्षेत्र" है और वह इस सीट पर जीत सकती है। जब कांग्रेस ने बछवाड़ा से अपना उम्मीदवार उतार दिया, तो यह महागठबंधन की एकता पर पहला बड़ा प्रहार था।
इस टकराव ने वाम एकता को भी दो फाड़ कर दिया। भाकपा (माले) ने स्पष्ट कर दिया कि वह वाम एकता के नाम पर केवल बछवाड़ा सीट पर ही भाकपा को समर्थन देगी। यह भाकपा के लिए एक बड़ी राहत थी, लेकिन यह भी स्पष्ट हो गया कि यह समर्थन सिर्फ एक सीट तक सीमित है। माकपा ने भी बछवाड़ा में भाकपा का साथ देने का फैसला किया। बछवाड़ा में कांग्रेस के अड़ियल रुख से नाराज भाकपा ने जवाबी कार्रवाई की। राजापाकड़, बिहार शरीफ और करगहर जैसी महत्वपूर्ण सीटें जहाँ 'वाम एकता' पूरी तरह बिखर गई और स्थिति हास्यास्पद हो गई। तीनों वाम दल तीन अलग-अलग दिशाओं में खड़े नजर आ रहे हैं।
राजापाकड़ में भाकपा ने कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार उतारा। यहाँ भाकपा (माले) और माकपा, दोनों ने भाकपा को झटका दे दिया। माले ने स्पष्ट किया कि वे राजापाकड़ में कांग्रेस को समर्थन दे रहे हैं। माकपा ने भी घोषणा की कि "राजापाकड़ कांग्रेस की सीट है, इसलिए वह भाकपा के बजाय कांग्रेस को समर्थन दे रही है।" यानि, राजापाकड़ में भाकपा अपने ही वामपंथी साथियों के खिलाफ अकेली पड़ गई।
इस पूरे प्रकरण ने वाम दलों के बीच किसी भी तरह के वैचारिक या रणनीतिक तालमेल की कमी को उजागर कर दिया। भाकपा (माले) ने स्पष्ट कर दिया कि वे भाकपा को बछवाड़ा के अलावा "अन्य किसी सीट पर समर्थन नहीं देंगे।" यह 'दोस्ताना संघर्ष' असल में एक 'शत्रुतापूर्ण संघर्ष' में बदल गया, जिसने न केवल जमीनी कार्यकर्ताओं को भ्रमित किया, बल्कि NDA विरोधी वोटों के स्पष्ट विभाजन की नींव भी रख दी।
यह पूरा घटनाक्रम बिहार में वामपंथी राजनीति के भीतर बदलते शक्ति संतुलन को भी दर्शाता है। भाकपा (माले) का उदय जैसा कि शुरुआती जानकारी में ही स्पष्ट था, भाकपा (माले) आज बिहार में वामपंथ का मुख्य चेहरा है। वर्षों के जमीनी संघर्ष, दलित-गरीबों के मुद्दों पर मुखरता और एक मजबूत कैडर बेस के दम पर माले ने अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है। महागठबंधन में उन्हें मिला 19 सीटों का बड़ा हिस्सा (जो बाद में 33 में से समायोजित हुआ)। माले का रुख बहुत स्पष्ट था वे RJD के साथ मुख्य सहयोगी हैं और कांग्रेस या अन्य वाम दलों के 'परंपरागत' दावों को ढोने के लिए बाध्य नहीं हैं। उनका राजापाकड़ और बिहार शरीफ में भाकपा के खिलाफ जाकर कांग्रेस को समर्थन देना, एक रणनीतिक कदम, जो यह दिखा रहा था कि वे गठबंधन धर्म को भाकपा की जिद से ऊपर हैं।
दूसरी ओर, भाकपा और माकपा, जो कभी बिहार की राजनीति में दखल रखते थे, आज अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष कर रहा है। भाकपा का बछवाड़ा के लिए अड़ना और फिर जवाबी कार्रवाई में कांग्रेस के खिलाफ उम्मीदवार उतारना, उसकी कमजोर होती जमीन को बचाने की एक हताश कोशिश ज्यादा लगी। उन्हें न तो माले का पूरा साथ मिला और न ही माकपा का। माकपा का रुख तो सबसे ज्यादा भ्रमित करने वाला रहा। वह कुछ सीटों पर भाकपा के साथ (बछवाड़ा, बिहार शरीफ) और कुछ पर कांग्रेस के साथ (राजापाकड़) खड़ी दिखी। यह दिखाता है कि इन दोनों दलों के पास न तो माले जैसा मजबूत जमीनी आधार बचा है और न ही मोलभाव करने की स्पष्ट राजनीतिक दृष्टि।
इस पूरी उथल-पुथल के बीच, सबसे चौंकाने वाला बयान भाकपा के राज्य सचिव रामनरेश पांडेय का आया। जमीनी हकीकत के ठीक विपरीत, उन्होंने दावा किया कि "बिहार चुनाव में वाम दलों के बीच पूर्ण सहमति है।" यह बयान राजनीतिक लीपापोती का एक उत्कृष्ट उदाहरण था। एक तरफ जहाँ वाम दल एक-दूसरे के खिलाफ उम्मीदवार उतार रहे थे, एक-दूसरे के खिलाफ प्रचार कर रहे थे, वहीं 'पूर्ण सहमति' का दावा करना हास्यास्पद था। पांडेय का बयान यहीं नहीं रुका। उन्होंने आगे अपील की कि "माकपा और माले भाकपा के सभी उम्मीदवारों को समर्थन देने पर पुनर्विचार करें।" यह 'अपील' ही उनके 'पूर्ण सहमति' के दावे को खोखला साबित करने के लिए काफी थी। यदि सहमति होती, तो पुनर्विचार की अपील क्यों की जाती? यह स्पष्ट था कि भाकपा इस 'दोस्ताना संघर्ष' में खुद को अकेला पा रही थी और अपने वामपंथी साथियों से समर्थन की गुहार लगा रही थी, जबकि माले और माकपा अपने-अपने रणनीतिक हितों के हिसाब से कदम बढ़ा चुके थे।बिहार का यह चुनाव महागठबंधन के लिए एक सबक है, लेकिन उससे भी बड़ा सबक वाम दलों के लिए है।
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