महापुरुष देश की सेवा करते हैं - लेकिन एक समय आने पर वह देश की प्रगति में बाधक बन जाते हैं — डॉ आंबेडकर
जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 19 सितम्बर ::
30 जनवरी 1948 की संध्या को दिल्ली के बिड़ला भवन में एक ऐसी घटना घटित हुई जिसने भारत ही नहीं, समूचे विश्व को स्तब्ध कर दिया। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। यह घटना केवल एक व्यक्ति की हत्या नहीं थी, बल्कि एक विचारधारा, एक संघर्ष और स्वतंत्र भारत की दिशा के सामने खड़ा हुआ वह प्रश्नचिह्न था, जिसके उत्तर आज भी खोजे जाते हैं।
गांधी ने अपने अंतिम शब्दों में कहा – “हे राम” यह केवल एक उच्चारण नहीं, बल्कि उनके जीवन-दर्शन का सार था। लेकिन उसी क्षण भारत का राजनीतिक, सामाजिक और वैचारिक परिदृश्य झकझोर उठा।
महात्मा गांधी को भारत में केवल राजनीतिक नेता के रूप में नहीं, बल्कि नैतिक और आध्यात्मिक शक्ति के रूप में देखा जाता है। उनका जीवन सत्य, अहिंसा, ब्रह्मचर्य, उपवास और आत्मसंयम से भरा हुआ था। उन्होंने भारत को स्वतंत्रता दिलाने की राह पर खड़ा किया, लेकिन 1947 के बाद उनका प्रभाव धीरे-धीरे राजनीति के मंच पर कम होने लगा।
कांग्रेस के भीतर सत्ता की राजनीति तेज हो चुकी थी। नेहरू और पटेल जैसे नेता अब राष्ट्र-निर्माण की ठोस योजनाओं में जुट चुके थे। ऐसे में गांधी का ग्राम-स्वराज, अस्पृश्यता उन्मूलन और हिन्दू-मुस्लिम एकता का एजेंडा कई बार “आदर्शवादी बोझ” माना जाने लगा।
नाथूराम गोडसे ने गांधी की हत्या की। गोडसे और उनके संगठन हिन्दू महासभा का मानना था कि गांधी की नीतियाँ मुस्लिमों के प्रति अत्यधिक झुकी हुई थीं। विभाजन के बाद जब पाकिस्तान को 55 करोड़ रुपये देने का निर्णय हुआ, तब गोडसे जैसे लोगों ने इसे “राष्ट्रहित के साथ विश्वासघात” बताया।
गोडसे के लिए गांधी “राष्ट्र के लिए बाधा” बन गए थे। उनकी नजर में गांधी का ‘अहिंसा’ और ‘समझौता’ भारत को कमजोर कर रहा था।
गांधी की हत्या के बाद डॉ. आंबेडकर ने अपनी पत्नी सविता आंबेडकर को एक पत्र लिखा। उसमें उन्होंने लिखा कि “महापुरुष अपने देश की महान सेवा करते हैं, लेकिन एक समय आने पर वह अपने देश की प्रगति में बाधक बन जाते हैं।”
उन्होंने रोम के इतिहास का उदाहरण देते हुए बताया कि जैसे सीजर की हत्या के बाद सिसरो ने रोमवासियों से कहा था कि “अब तुम्हारी आज़ादी का क्षण आ गया है।” उसी प्रकार गांधी की मृत्यु को उन्होंने एक ऐतिहासिक मोड़ माना।
आंबेडकर का मानना था कि कांग्रेस उस समय स्वार्थी तत्वों का समूह बन चुका था। गांधी उस कांग्रेस का संरक्षण कर रहे थे, जबकि वही कांग्रेस शासन के योग्य नहीं थी। इसीलिए उन्होंने लिखा कि “गांधी इस देश के लिए सकारात्मक खतरा बन चुके थे।”
गांधी और आंबेडकर के संबंध जटिल रहा। पूना पैक्ट (1932)- जब आंबेडकर ने ‘अलग निर्वाचिका’ (Separate Electorates) की मांग की, तो गांधी ने आमरण अनशन कर दिया। अंततः समझौता हुआ, लेकिन आंबेडकर ने इसे दलित आंदोलन की पराजय माना। सामाजिक सुधार बनाम राजनीतिक सुधार- गांधी अस्पृश्यता उन्मूलन के पक्षधर थे, लेकिन वे जाति व्यवस्था के उन्मूलन तक नहीं जाते थे। जबकि आंबेडकर ने स्पष्ट कहा है कि “जाति का नाश करो।” धर्म पर दृष्टिकोण- गांधी हिन्दू धर्म के भीतर सुधार चाहते थे, जबकि आंबेडकर ने अंततः बौद्ध धर्म को अपनाया। इसलिए गांधी की हत्या के बाद आंबेडकर की प्रतिक्रिया केवल एक व्यक्ति की मृत्यु नहीं, बल्कि एक विचारधारा से दूरी का प्रतीक था।
1947 के बाद कांग्रेस सत्ता पार्टी बन चुकी थी। स्वतंत्रता संग्राम की जनान्दोलनकारी संस्था अब एक शासक दल थी। गांधी चाहते थे कि कांग्रेस को भंग कर दिया जाए और उसे “लोकसेवा संगठन” बना दिया जाए, लेकिन नेताओं ने उनकी नहीं सुनी। आंबेडकर को लगता था कि गांधी की उपस्थिति इस कमजोर और स्वार्थी कांग्रेस को “नैतिक वैधता” प्रदान कर रही थी। उनकी मृत्यु के बाद ही संभव था कि कांग्रेस का वास्तविक रूप उजागर हो।
गांधी की हत्या से राष्ट्रव्यापी शोक फैला। लेकिन इसके साथ ही यह प्रश्न भी उठा कि स्वतंत्र भारत किस राह पर जाएगा? अहिंसा बनाम यथार्थवादी राजनीति- क्या भारत अब भी गांधी के आदर्शों पर चलेगा या नेहरू और पटेल की कठोर यथार्थवादी नीतियों को अपनाएगा? हिन्दू-मुस्लिम संबंध- विभाजन की हिंसा के बाद गांधी की हत्या ने और गहरे घाव दिए। राजनीतिक हिंसा का मार्ग- गोडसे की गोली ने यह संकेत दिया कि भारत में विचारधारा के नाम पर हिंसा अब संभव है।
विश्व ने गांधी की हत्या को केवल भारत की हानि नहीं, बल्कि मानवता की क्षति माना। अमेरिकी वैज्ञानिक अल्बर्ट आइंस्टीन ने कहा कि “आने वाली पीढ़ियाँ शायद ही विश्वास करेंगी कि इस धरती पर ऐसा कोई व्यक्ति भी चला था।” लेकिन भारत के भीतर यह हत्या एक गहरे विभाजन को उजागर कर रही थी, एक ओर गांधी का अहिंसक, धार्मिक और आध्यात्मिक राष्ट्र का सपना, दूसरी ओर आंबेडकर, गोडसे और अन्य आलोचकों का यथार्थवादी और संघर्षशील दृष्टिकोण।
गांधी की मृत्यु के बाद भारत की राजनीति तीन धाराओं में बंटी। कांग्रेसवादी मार्ग- नेहरू के नेतृत्व में समाजवादी झुकाव और योजनाबद्ध विकास। आंबेडकरवादी मार्ग- सामाजिक न्याय, जाति उन्मूलन और संविधानवाद। हिंदुत्ववादी मार्ग- गोडसे और सावरकर की विचारधारा, जो आगे चलकर जनसंघ और भाजपा के रूप में प्रकट हुई। गांधी की हत्या ने इन तीनों धाराओं को और स्पष्ट कर दिया।
आंबेडकर ने अपने पत्र में बाइबल का संदर्भ दिया कि “कभी-कभी अच्छाई बुराई से निकलती है।” उनका मानना था कि गांधी की मृत्यु एक त्रासदी है, लेकिन उससे कांग्रेस और भारतीय राजनीति पर छाया हुआ नैतिक छलावरण हटेगा। यह कथन आज भी विवादास्पद है, लेकिन इसे आंबेडकर के गहरे यथार्थवादी दृष्टिकोण का प्रतीक माना जा सकता है।
आज जब हम 30 जनवरी 1948 को देखते हैं, तो हमें तीन दृष्टिकोण मिलते हैं, गांधीवादी दृष्टि- यह हत्या राष्ट्र की आत्मा पर हमला थी। गोडसेवादी दृष्टि- गांधी की नीतियाँ राष्ट्रविरोधी थी, उनकी हत्या आवश्यक था। आंबेडकरवादी दृष्टि- गांधी महान थे, लेकिन समय आने पर वे प्रगति में बाधा बन गए थे। इन तीनों दृष्टिकोणों से स्वतंत्र भारत का वैचारिक इतिहास निर्मित हुआ।
गांधी की हत्या केवल एक घटना नहीं थी, बल्कि यह भारत के इतिहास का वह बिंदु था जहाँ से राष्ट्र ने नई दिशा पकड़ी। गांधी की अहिंसा, करुणा और सत्य आज भी आदर्श हैं। आंबेडकर का यथार्थवाद, सामाजिक न्याय और संविधान आज भी मार्गदर्शक हैं। गोडसे की हिंसा एक चेतावनी है कि असहमति को गोली से नहीं, विचार से हराना चाहिए।
30 जनवरी 1948 का “हे राम” और डॉ. आंबेडकर का पत्र, दोनों बताता है कि महापुरुष भी समय और समाज की कसौटी पर परखे जाते हैं। भारत का लोकतंत्र इसी द्वंद्व से निकला, जहाँ महात्मा की करुणा और आंबेडकर का संघर्ष साथ-साथ चलता हैं।
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