सनातन" हम सभी में सत्य प्रतिष्ठित "धर्माचरण" के रूप में विद्यमान है लेखक : अवधेश झा

सनातन" हम सभी में सत्य प्रतिष्ठित "धर्माचरण" के रूप में विद्यमान है लेखक : अवधेश झा


सनातन ब्रह्म है। सनातन कालातीत है और सत्य ही सनातन है तथा आत्मा की तरह नित्य है। सत्य का आचरण ही सनातन है। सनातन ही आत्मा की उत्पति, स्थिति और प्रलय तथा अग्नि कर्म, उपासना और ज्ञान भाव है। प्रकृति ही सनातन की सक्रिय शक्ति और समष्टि भाव है। समस्त जीवात्मा की स्वाभाविक क्रिया सनातन ही है। 
   इस संबंध में जस्टिस राजेंद्र प्रसाद (पूर्व न्यायाधीश, पटना उच्च न्यायालय, पटना) का कहना है कि "सनातन देश और काल से परे है। सनातन ब्रह्म का ही पर्यायवाची है। सनातन, ब्रह्म से संकल्पित ब्रह्मांड की तरह समष्टि रूप है। इसलिए, सनातन का कभी नाश नहीं होता है। जैसे पांच महाभूत में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश के समष्टि भाव का कभी नाश नहीं होता, उसी तरह से सनातन का कभी नाश नहीं होता है। हम भारतीय सनातनी हैं और हमारा सनातन संदेश सम्पूर्ण विश्व के कल्याणार्थ है।"

  वास्तव में, सनातन आदि और अनादि काल से ब्रह्म और प्रकृति का सूत्रधार या ब्रह्म सूत्र के रूप में विद्यमान है। इसलिए, ब्रह्म और प्रकृति के अनुरूप इसका आचरण है तथा इसका कभी नाश नहीं होता है। सनातन विधि का विधान है; जो समस्त कर्मों, कर्तव्यों और धर्मों की मर्यादा तथा उसके अनुरूप सत्य आचरण के रूप में विद्यमान है।सनातन ब्रह्म का अनुशासन है, जो समस्त जीव को मार्ग प्रशस्त करता है। सनातन ही "जीव संकल्प" का जीवन और प्रत्येक जीवन का नियमित दिनचर्या है। सनातन ही ब्रह्म को समर्पित सभी कर्मों का स्वरूप और उससे प्राप्त होने वाला फल का ज्ञान है। सनातन ही ब्रह्म का साधन और संसाधन है। सनातन ही प्रकृति का धर्म और कर्म है। सत्य सनातन ही ब्रह्म के "जीवात्मा" भाव का धर्म है और भोग है। ब्रह्म इसी धर्म की रक्षा के लिए अपने "शुद्ध स्वरूप" में अवतार लेते हैं तथा "सत्य" सनातन की रक्षा करते हैं। सनातन सहज, लौकिक, पारलौकिक तथा समस्त पद्धतियों का महासागर है; जिससे समस्त सभ्यता, संस्कृति और भाषाओं का उदय हुआ है। सनातन ही बुद्धि की सूक्ष्म भाव से मन में कल्पित संकल्पों को पूरा करने के लिए देश, काल का अवसर प्रदान करता है। सनातन ही पृथ्वी का नित्य श्रृंगार और उत्कृष्ट सभ्यता - संस्कृति है।
   वास्तव में, सनातन आत्मा के व्यक्त भाव का नित्य कर्म हैं और उपासना रूपी नित्य - निरंतर स्वरूप का अभ्यास है तथा अपने स्वरूप का दर्शन करने का उत्तम प्रयास है। सनातन ब्रह्म द्वारा प्रतिष्ठित श्रेष्ठ आचरण है, जिसमें ब्रह्म अपने "स्वरूप स्थिति" में प्रकट होकर सनातन अनुरूप ब्रह्म आचरण करता हैं। इसलिए, सनातन का आचरण; ब्रह्म का आचरण ही है। जब तक आपकी आत्मा "जीव भाव" में हैं; सत्य रूपी सनातन ही आपका सांसारिक स्थिति का विभिन्न अवस्था और उसको अनुसरण करने वाला मार्ग है। यह मार्ग स्वयं आत्मा द्वारा संकल्पित और निर्देशित है। इसलिए, इस मार्ग पर चलने वालों को ब्रह्म स्वरूप ईश्वर का दर्शन तथा स्वरूप स्थिति की प्राप्ति भी सुनिश्चित है। जैसे जितना बड़ा आकाश आपको बाहर दिखाई देता है; उससे बड़ा आकाश आपके भीतर विद्यमान है! उसी तरह से सनातन जो बाहर प्रतीत होता है वह आपके भीतर का समष्टि रूप है।
    सनातन सत्य का आचरण होने से सत्य में ही क्रियाशील रहता है। यह पुरुष स्वरूप "आत्मा" के आकाश और चौबीसों तत्वों में विद्यमान गुण के सत्य को उद्घाटित करता है तथा बुद्धि के सत्य भाव में स्थित होकर आत्मोन्मुख रखता है और मन को ब्रह्म आचरण के लिए प्रेरित करता रहता है तथा इंद्रियों को संयमित और शुभ संकल्पों के प्रति दृष्ट तथा दृश्य जगत में भी ब्रह्म के व्यवहारिक आचरण के लिए सक्रिय रखता है। इसलिए, व्यवहारिक जगत में यही सनातन महर्षि, ब्रह्मर्षि, तपस्यी, ऋषि, मुनि, महात्मा, ब्रहोन्मुख, तपोनिष्ठ, श्रेष्ठ आचरण वालों की ब्रह्म स्थिति और "ब्रह्म उपाधि" है। सत्य ही सनातन का रक्षक है और सत्य रूपी सनातन कभी नीच आचरण नहीं करता है। सनातन एक मर्यादा है और सत्य प्रतिष्ठित वचन भी है। आत्मा के साकार भाव में सनातन ही सत्य है। 
  इस तरह से कुल परंपरा में भी सत्य सनातन का आचरण जो राजा हरिश्चंद्र ने सतयुग में धारण किए थे और उसी सत्य आचरण का पालन श्रीराम त्रेता युग में किए तथा उसी सत्य सनातन का आचरण श्रीकृष्ण द्वापर युग में किए है और कलयुग वही सत्य सनातन आचरण विद्यमान है। 
     सनातन ही आत्म या ब्रह्म का सत्य प्रमाण और अनुभूति है। आत्म स्वरूप ब्रह्म की स्थिति, प्राकट्य और विधि, क्रिया आदि में जो एकनिष्ठ भाव "सत्य प्रतिष्ठित" है, वही सनातन है। सनातन यज्ञ रूपी आत्मा की हवन आहुति है जो नित्य, निरंतर ब्रह्म की स्थिति को प्रज्वलित रखता है। सनातन "चेतन" स्वरूप "ब्रह्म" ही है, जो समस्त "चेतन भाव" में सत्य स्वरूप ॐ रूप में विद्यमान है। इस तरह, सनातन ही हम सभी में "सत्य स्वरूप धर्माचरण" के रूप में विद्यमान है।

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