*देवताओं की परिक्रमा करते समय दाहिना अंग देवता की ओर होना चाहिए*

*देवताओं की परिक्रमा करते समय दाहिना अंग देवता की ओर होना चाहिए*

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 07 अगस्त, 2024 ::

सनातन धर्म में पवित्र स्थलों के चारों ओर श्रद्धाभाव से 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' करने का विधान है, जिसे षोडशोपचार पूजा का एक अंग कहा जाता है। मान्यता है कि 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' का शुरुआत सबसे पहले भगवान गणेश और भगवान कार्तिकेय ने किया था और यहीं से प्रचलन शुरू हुआ है। देखा जाय तो खगोलीय स्तर पर भी ब्रह्मांड में सभी ग्रह सूर्य की परिक्रमा करते हैं।

'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' करने का भी विधान है कि किस दिशा से 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' शुरू किया जाय।
मान्यता है कि 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' करने वाले व्यक्ति अपने दक्षिण भाग की ओर से परिक्रमा करना चाहिए ऐसा करने पर ही प्रदक्षिणा कहलाता है, क्योंकि प्रदक्षिणा करते समय व्यक्ति का दाहिना अंग देवता की ओर होना चाहिए।

देश में 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' देव मंदिर और मूर्ति को करने का प्रचलन है , जिसमें विशेष कर देव मंदिर में जगन्नाथ पुरी परिक्रमा, रामेश्वरम, तिरुवन्नमल, तिरुवनन्तपुरम परिक्रमा और देवमूर्ति में शिव, दुर्गा, गणेश, विष्णु, हनुमान, कार्तिकेय आदि देवमूर्तियों उल्लेखनीय है। ऐसे तो देव परिक्रमा, नदी परिक्रमा, पर्वत परिक्रमा, वृक्ष परिक्रमा, तीर्थ परिक्रमा, चार धाम परिक्रमा, भरत खण्ड परिक्रमा, विवाह परिक्रमा का भी विधान है।

नदी परिक्रमा में  नर्मदा नदी, गंगा नदी, सरयु नदी, क्षिप्रा नदी, गोदावरी नदी, कावेरी नदी की परिक्रमा प्रमुख माना जाता है, उसी प्रकार पर्वत परिक्रमा में गोवर्धन परिक्रमा, गिरनार, कामदगिरि, तिरुमलै परिक्रमा, वृक्ष परिक्रमा में पीपल और बरगद की परिक्रमा, तीर्थ परिक्रमा में चौरासी कोस परिक्रमा, अयोध्या, उज्जैन या प्रयाग पंचकोशी यात्रा, राजिम परिक्रमा, चार धाम परिक्रमा में छोटा चार धाम परिक्रमा या बड़ा चार धाम यात्रा, भरत खण्ड परिक्रमा अर्थात संपूर्ण भारत की परिक्रमा शामिल है और विवाह परिक्रमा में मनु स्मृति में विवाह के समय वधू को अग्नि के चारों ओर तीन बार परिक्रमा करने का विधान बताया गया है जबकि वर-वधू  मिलकर 7 बार परिक्रमा करते हैं तो विवाह संपन्न माना जाता है।

यात्रा परिक्रमा में सबसे पहले सिंधु की यात्रा, दूसरे में गंगा की यात्रा, तीसरे में ब्रह्मपुत्र की यात्रा, चौथे में नर्मदा, पांचवें में महानदी, छठे में गोदावरी, सातवें में कावेरी, आठवें में कृष्णा और अंत में कन्याकुमारी की यात्रा किया जाता है। सभी यात्राओं का अलग अलग विधान और नियम होते है।

मान्यता है कि 'परिक्रमा' या 'प्रदक्षिणा' भगवान शिव की आधी करना चाहिए वहीं माता दुर्गा की एक, हनुमान जी और गणेश जी की तीन-तीन, भगवान विष्णु की चार, सूर्यदेव की चार, पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमा चाहिए। साथ ही जिन देवताओं की परिक्रमा का विधान की जानकारी नहीं होता है, तो उनकी तीन परिक्रमा की जाती है।

भगवान गणेश की तीन परिक्रमा करने से गणेश जी के भक्त को रिद्दी-सिद्धि सहित समृद्धि का वर मिलता हैं। माता दुर्गा की एक परिक्रमा करने पर भक्तों को शक्ति मिलता है। भगवान विष्णु की चार परिक्रमा करने पर अक्षय पुण्य मिलता है। सूर्य देवता की सात परिक्रमा करने पर साभी मनोकामनाएं जल्द पूरी होती है। पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमा और पवनपुत्र श्री हनुमानजी की तीन परिक्रमा करने का विधान है। सोमवती अमावास्या को महिलाएं पीपल वृक्ष की 108 परिक्रमाएं करती हैं। जिन देवताओं की परिक्रमा करने का विधान नही है, उनकी तीन परिक्रमा किया जा सकता है। 
 
परिक्रमा के लिए अयोध्या, मथुरा आदि पुण्यपुरियों की पंचकोसी (25 कोस की), ब्रज में गोवर्धन की सप्तकोसी, ब्रह्ममंडल की चौरासी कोस, नर्मदाजी की अमरकंटक से समुद्र तक छ:मासी और समस्त भारत खंड की वर्षों में पूरी होने वाली विविध परिक्रमाएं भूमि में पद-पद पर दंडवत (लेटकर) कर पूरी की जाती है। यही 108-108 बार प्रति पद पर आवृत्ति कर के वर्षों में समाप्त होती है।
 
मान्यता यह भी है कि तिलक लगाने के बाद, यज्ञ देवता अग्नि या वेदी की, तीन प्रदक्षिणा (परिक्रमा) करनी  चाहिए। ये तीन परिक्रमा जन्म, जरा और मृत्यु के विनाश के लिए तथा मन, वचन और कर्म से भक्ति की प्रतीक रूप में, बाएं हाथ से दाएं हाथ की तरफ लगाने का विधान है।
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