*गुरु पूर्णिमा: गुरु की प्रासंगिकता - अवधेश झा*
जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 21 जुलाई ::
गुरु पूर्णिमा महर्षि वेद व्यास के जयंती के उपलक्ष्य में सम्पूर्ण जगत मनाता है। इस तिथि को गुरु - शिष्यों के तिथि के रूप में जाना जाता है इसलिए गुरु की महत्ता बढ़ जाता है। अब प्रश्न यह उठता है कि गुरु की क्यों आवश्यकता है तथा शिष्य के जीवन में गुरु की क्या भूमिका है? जस्टिस राजेंद्र प्रसाद जोकि अध्यात्म दर्शन के ज्ञाता हैं, ने गुरु की भूमिका पर प्रकाश देते हुए कहा कि " गुरु ज्ञान का पुंज है जिसका प्रत्यक्ष संबंध ब्रह्म ज्ञान या आत्म ज्ञान से है। गुरु आत्मा का अनुशासक होता है; इसलिए केवल ब्रह्म की ही बात करता है और ब्रह्म की ही शिक्षा देता है। महर्षि वेद व्यास स्वयं ब्रह्म ज्ञानी थे; जिस वेद का वह संपादन किए हैं, उसका भी ज्ञान खंड ब्रह्म ज्ञान ही है। वास्तव में ब्रह्म ज्ञान स्वयं का ही ज्ञान है और गुरु अर्थात वह ब्रह्म ज्ञानी जो आपको ब्रह्म अर्थात आपके स्वयं का दर्शन करा दें। और जब स्वयं का दर्शन हो जाता है तब गुरु और शिष्य में कोई भेद नहीं रह जाता है।" व्यवहार जगत में भेद दृष्टिकोण से देखा जाए तो गुरु और शिष्य भिन्न प्रतीत होते है परंतु ब्रह्म जगत में गुरु और शिष्य एक ही है, अवस्था भले ही भिन्न हो। अर्जुन और श्रीकृष्ण अलग नहीं थे। वह एक ब्रह्म के दो व्यक्त भाव थे; जिसमें श्रीकृष्ण पूर्णता को प्राप्त थे और अर्जुन का राजर्श अवस्था था , इसलिए वह संसार रूपी शोक के सागर में डूब गया था और श्रीकृष्ण उन्हें ज्ञान मार्ग से इस शोक से निकाले।
इस तरह यह संसार जो दृश्य जगत के रूप में व्याप्त है, वास्तव में इसका अस्तित्व तभी तक है, जब तक आपको अपने आपका ज्ञान नहीं हो जाता है। जब तक आपको अपने स्वरूप का दर्शन नहीं हो जाता है और वह दर्शन गुरु ही करा सकता है। वह गुरु वास्तव में कोई भी हो सकता है, जो आपको इस संसार रूपी अंधकार से निकल ले। गुरु वह नहीं है जो आपको संसार का बोझ और ज्यादा बढ़ा दे। सांसारिक कामना की पूर्ति के लिए जो युक्ति, विमर्श, पूजा पाठ, तंत्र मंत्र सिद्धि कराया जाता है वह संसार में सुख पूर्वक रहने तथा संसार का भोग करने के लिए होता है। संसार से मुक्त होने के लिए गुरु की आवश्यकता होती है। इसलिए, गुरु की महत्ता हमेशा से रही है, और हमेशा रहेगा। महर्षि वेद व्यास भी अपने पुत्र सुकदेव को ब्रह्म ज्ञान की शिक्षा गर्भ में ही स्वयं भगवान शंकर से दिलवाए थे तथा उनका सम्पूर्ण शिक्षा गर्भ में ही हो गया था। इसलिए, जन्म के उपरांत ही वह संसार मुक्त जीवन की यात्रा प्रारंभ कर दिए और सर्वप्रथम श्रीमद्भागवत महापुराण की कथा राजा परीक्षित को सुनाए तथा उन्हें मुक्त किए।
गुरु वह सामर्थ है जो गुरु और शिष्य की भेद दृष्टि समाप्त कर दे और इस तरह के उदाहरण हमारे शास्त्रों में भरपूर है।आज गुरु पूर्णिमा के दिन गुरु अपने ज्ञान की पूर्णता में उदय होते है और यहां अंधकार शून्य हो जाता है। इसलिए, इस ज्ञानोदय का आनंद लीजिए।
--------
0 Response to "*गुरु पूर्णिमा: गुरु की प्रासंगिकता - अवधेश झा*"
एक टिप्पणी भेजें