*मौलाना मजहरुल हक की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था*

*मौलाना मजहरुल हक की कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था*


जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 20 दिसम्बर ::


मौलाना मजहरूल हक का जन्म पटना जिला के मनेर थानान्तर्गत बहपुरा गाँव में 22 दिसम्बर, 1866 को हुआ था। उनके पिता शेख अहमदुल्ला साहब एक छोटे जमींदार थे और बड़े ही नेक दिल इंसान थे। मौलाना मजहरुल हक अपने पिता के इकलौते पुत्र थे। उनकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई थी। वर्ष 1886 में उन्होंने कॉलेजियट स्कूल से मैट्रिक की परीक्षा पास की थी। वर्ष 1887 में कॉलेज में दाखिला लेने के लिए वे  लखनऊ गये थे। वहीं उनके दिल में इंगलैंड जाने का शौक पैदा हुआ था। उस जमाने में बहुत से नवयुवक यूरोप जा रहे थे। यह एक संयोग की ही बात थी कि जिस जहाज से वे लन्दन जा रहे थे, उसी जहाज से महात्मा गाँधी भी यात्रा कर रहे थे।


मौलाना मजहरुल हक इंगलैंड में तीन वर्षों तक रहे और वहाँ भारतीय छात्रों के लिए उन्होंने ‘‘अंजुमने- इस्लामिया’’ नामक एक संस्थान की स्थापना की थी। बैरिस्ट्री की डिग्री लेने के बाद वे हिन्दुस्तान वापस आकर पटना में प्रैक्टिस करने लगे। वर्ष 1896 में वे छपरा चले आये और फिर वहीं वकालत शुरू की। एक वर्ष बाद बिहार में भयंकर अकाल पड़ा। उस अकाल में उनसे गरीबों की भूखमरी और दुर्दशा देखी नहीं गयी और उन्होंने उस समय जनसेवा का अभूतपूर्व परिचय दिया। 


स्वतंत्रता संग्राम के अमर सेनानी, हिन्दु-मुस्लिम एकता के प्रबल समर्थक, भारत माता के वीर सपूत, मौलाना मजहरूल हक हिन्दुस्तान के चोटी के नेताओं में एक थे। उनका सम्पूर्ण जीवन जनसेवाको समर्पित था। उन्होंने ऐसे समय में अंग्रेजी साम्राज्य के विरूद्ध लड़ाई शुरू की थी जब बहुत कम लोग इस मैदान में थे।


वर्ष 1903 में वे छपरा नगरपालिका के उपाध्यक्ष निर्वाचित हुए। उन्होंने स्वायत्त शासन  में अपेक्षित सुधार किया और जनता में आत्म विश्वास से काम करने की लगन पैदा की।


वर्ष 1906 में वे पुनः पटना आकर पटना में वकालत करने लगे और शीघ्र ही वे देश के जाने-माने वकीलों में गिने जाने लगे। उसी समय कानपुर की मस्जिद का मामला उठ खड़ा हुआ। कोई भी वकील सरकार के दबदबा तथ दमन के कारण न्यायालय में सरकार के खिलाफ आने का साहस नहीं करता था। कानपुर के ‘‘मस्जिद कांड’’ में अनेक मुसलमान मारे गये थे।


वर्ष 1912 में पटना में कांग्रेस का 27वां अधिवेशन हुआ था और मौलाना मजहरूल हक उस अधिवेशन के लिए स्वागत समिति के अध्यक्ष चुने गये थे। इस दौरान उन्होंने अपनी संगठनात्मक शक्ति, सहनशीलता, कार्य कुशलता का परिचय नहीं दिया, बल्कि उनके सारगर्भित, ओजस्वी तथा तीखे प्रहार ने अंग्रेजों की रीढ़ में कनकनी पैदा कर शासन की नीव हिला दिया था। उन्होंने कहा था ‘‘देश प्रेम का यह तकाजा है कि किसी के सामने हमारा सर न झूके। हम सारे देश के लोग कांग्रेस के साथ हैं और जो कांग्रेस का आदर्श है वहीं हमारा आदर्श  है।’’ 


महात्मा गाँधी ने कहा था कि ‘‘मौलाना मजहरूल हक बहुत बड़े देश प्रेमी, सच्चे मुसलमान और एक बड़े दार्शनिक थे। पहले वह बड़े रईसाना ठाट-बाट से रहते थे, लेकिन जब असहयोग आन्दोलन चला तो उन्होंने सबकुछ छोड़-छाड़ कर फकीरी का जीवन अपना लिया। उनकी कथनी और करनी में कोई फर्क नहीं था।’’


मजहरूल हक को ईश्वर ने वाणी और लेखनी दोनों ही प्रदान किया था। उन्होंने सरकार के विरूद्ध कार्रवाई करने का भार स्वयं ले लिया जो अपने आपमें उस समय का अत्यधिक साहसिक कदम था। इसके बाद उनकी निर्भिकता तथा नैतिकतावादी विचारों का देश के कोने-कोने में प्रचार हो गया।


पुनः 1916 के कांग्रेस अधिवेशन में भाषण देते हुए उन्होंने कहा था कि ‘‘मेरे विचार में भाषण देने और बातें बताने का समय गुजर गया है। अब काम का समय है। आप भारत के लिए होमरूल या स्वशासन की मांग कर रहे हैं। क्या आप समझते है कि यह चीज केवल मांगने से मिल जायगी?  हमें अपने शासकों को यह दिखाना होगा कि हिन्दुस्तान का हर आदमी, हर स्त्री और बच्चा ‘‘सेल्फ गवर्नमेंट’’ हासिल करने के लिए किस तरह अटल है।’’


वर्ष 1917 में जब गाँधी जी चम्पारण आये थे तो मौलाना मजहरुल हक साहब का सम्पूर्ण सहयोग उनको प्राप्त हुआ था। गाँधी जी के साथ मेल-जोल की वजह से मौलाना मजहरुल हक साहब की जिन्दगी में बड़ा परिवर्तन हुआ था। उन्होंने रईसाना ठाट-बाट की जिन्दगी छोड़कर सादगी की जिन्दगी अपना लिया और अपना सब कुछ देश सेवा के लिए अर्पित कर दिया। 


असहयोग आन्दोलन के क्रम में एक बड़ी नाटकीय घटना हुई। बिहार स्कूल ऑफ इंजिनीयरिंग के वैसे विद्यार्थियों ने, जिन्होंने असहयोग आन्दोलन के जमाने में कालेज छोड़ दिया था, मौलाना साहब के पास पहुंचे और अपने लिए कुछ व्यवस्था करने की बात कही। मौलाना साहब सच्चे अर्थों में एक सिपाही थेे। वे केवल कार्य करने पर विश्वास करते थे।


उन्होंने फौरन अपनी सजी सजाई कोठी ‘‘सिकन्दर मंजिल’’ छोड़ दी और उन विद्यार्थियों के साथ पटना-दानापुर सड़क पर एक बगीचे में चले गये। वहाँ उन्होंने कुछ झोपड़ियाँ खड़ी की, फूल-पौधे लगाये और देखते-देखते उस स्थान ने आश्रम का रूप ले लिया। इस तरह सिकन्दर मंजिल की ठाट-बाट का जीवन गुजारने वाला व्यक्ति बाग में बनी झापड़ी का वासी बन गया। मौलाना साहब ने इस स्थान का नाम ‘‘सदाकत आश्रम’’ रखा और उस समय से आ तक यह ऐतिहासिक स्थान राजनीतिक कार्यकलापों और राष्ट्रीय एकता के लिए रचनात्मक काम करने का केन्द्र बना हुआ है।


सितम्बर 1921 में उन्होंने पटना से एक अंग्रेजी साप्ताहिक ‘‘मदरलैंड’’ का प्रकाशन किया। इस पत्र के माध्यम से उन्होंने कौमी एकता और भाईचारे के महत्त्व को उजागर किया। उनकी मान्यता थी कि भारत की भलाई इसी में है कि दोनों धर्मों के लोग मिलजुल कर रहें। ब्रिटिश सरकार के अत्याचारों और आजादी के आन्दोलनों से संबंधित समाचारों के प्रकाशन के लिए उनपर मुकदमा चलाया गया और उन्हें एक हजार रुपये का जुर्माना अथवा तीन महीने जेल की सजा का दण्ड सुनाया गया। उन्होंने जुर्माना देने के बजाये तीन महीने के लिए जेल जारना श्रेयस्कर समझा।


वर्ष 1926 में अखिल भारतीय कांग्रेस के गौहाटी अधिवेशन की अध्यक्षता के लिए उन्हें आमंत्रित किया गया, किन्तु उन्होंने इस पद को कबूल करने से इन्कार कर दिया। क्योंकि  उस वक्त तक राजनीतिक जीवन से वे सन्यास ले चुके थे और एक फकीर का जीवन व्यतीत कर रहे थे। अपने जीवन के अन्तिम दिनों में वे बिल्कुल साधु हो गये थे। उन्होंने लम्बी दाढ़ी रख ली थी, मामूली कपड़ा पहनते थे और संत की तरह जिन्दगी गुजारते थे। वे पुराने सारण जिला के फरीदपुर गांव में आकर रहने लगे। इस मकान का नाम उन्होंने  आसियाना’’ रखा था। उन्हें 27 दिसम्बर, 1929 को पक्षाघात (लकवा) हो गया था और 2 जनवरी, 1920 को साम्प्रदायिक सद्भावना के लिए जीवन पर्यन्त संघर्षरत वह महान व्यक्तित्व सदा के लिये चले गये।

                 

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