हिन्दू संस्कृति में कुछ भी काटकर खुशी मनाना वर्जित माना गया है
जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 29 दिसंबर ::
कैलेंडर नव वर्ष (नये साल) के आगमन पर 31 दिसम्बर की रात से ही 01 जनवरी को नववर्ष (नया साल) के रूप में जश्न मनाया जाता है। प्रत्येक वर्ष लगभग सभी जगह पर 31 दिसम्बर की आधी रात को जश्न मनाया जाता है, केक काटे जाते हैं, केक काटने से पहले सभी बत्तियों को बुझा कर पूरी तरह अंधेरा किया जाता है और फिर, अचानक एकसाथ सभी बिजली की स्विच को ऑन कर रोशनी करते हुए सभी लोग चीखने लगते हैं “Happy New Year”। उसके बाद जहां शराबबंदी नही है वहाँ शैम्पेन और शराब की बोतलें खुलती है और न जाने कितने जीवों की हत्या कर बनाया गया भोजन परोसा जाता है। इस प्रकार नये साल (01 जनवरी) के आगमन का स्वागत किया जाता है।
देखा जाय तो नये साल का स्वागत हम लोग 31 दिसम्बर की आधी रात (12 बजे) को अंधेरा करके मनाते है; भले ही उसके बाद पटाखे या आतिशबाजी करें। लेकिन नये साल का प्रवेश से कुछ पल पहले अंधकार किया जाता है। शायद यही वजह है कि हमलोग कही न कही, अंधेरे में भटक गए हैं। हमें सही राह नहीं मिल रहा है। जबकि हमलोग प्रकाश को, ज्ञानपुंज कहते है और अंधकार को अज्ञान। लेकिन आज हम लोग अज्ञानता को ही जाने-अनजाने में गले लगा रहे हैं।
आज हमलोग पाश्चात्य सभ्यता का अनुकरण आधुनिक युग के नाम पर करने में लगे हैं। अब देखा जाय तो उत्सव छोटा हो या बड़ा, हर उत्सव में केक काटने की एक परंपरा बनने लगा है। जबकि हिन्दू संस्कृति में केक क्या? कुछ भी काटकर खुशी मनाना वर्जित माना गया है। हमारी संस्कृति में प्रत्येक पर्व त्योहार किसी न किसी तार्किक तथ्यों से जोड़ा गया है। अब केक काटने को भी देखा जाय, तो, केक काटने वाले ने केक काटा और अपना हिस्सा अलग कर लिया। अब वो उसे खुद खाये या अपने किसी खास प्रिय को खिलाये। बाकी बचा खुचा जिसे खाना हो खाये, उससे उसको ( काटने वाले का) कोई लेना देना नहीं रहता है। यही वजह है कि आज हम लोग एकाकी और सीमित होते जा रहे हैं।
देखा जाय तो हम लोग जन्मदिन पर या कोई अन्य उत्सव पर केक जरूर काटते हैं और केक काटने की प्रक्रिया क्या होता है? हम लोग पहले केक पर मोमबत्ती लगाते है और फिर उसे जलाते हैं, फिर उस मोमबत्ती को खुद फूंक कर बुझा देते हैं। तब केक को काटते है। जबकि यह संस्कृति हिन्दू संस्कृति के बिल्कुल विपरीत है। क्योंकि हिन्दू संस्कृति में यदि दिया जलाया जाए और वो दिया बुझ जाए तो इसे अपसगुन माना जाता है और किसी अनजानी अनहोनी होने की ओर इशारा समझा जाता है। लेकिन आज का हिन्दू समाज भी अब दिया जलाने में नहीं, बल्कि उसे बुझाने को खुशी का पर्याय मानने लगा है।
हिन्दू संस्कृति में ज्योति और प्रकाश का एक खास महत्व होता है। क्योंकि खुशी में हिन्दू लोग 5 दीपक जलाते हैं और दुख में अंधेरा रखते हैं। हिन्दू “संस्कृति” हमें सिखाता है और “संस्कार” हमें उस पर चलना। हिन्दू संस्कृति में जब भी शुभ कार्य होता है, तो दीपक जलाते हैं और अपने इष्ट देवता को विशेष कर मोतीचुर लड्डू अर्पित करते हैं। क्योंकि मोतीचुर लड्डू भी एकता का प्रतीक है। मोतीचूर लड्डू को परसादी के रूप में, लोगों के बीच बांटते है। यह शुभ और खुशी का प्रतीक है, क्योंकि मोतीचुर को बांध कर लड्डू का स्वरूप दिया जाता है। मोतीचुर लड्डू से यह सन्देश मिलता है कि हर शुभ क्षण को हम एक साथ मिलकर मनायें, इससे आनंद और खुशियाँ बढ़ जाती है। कहने का उद्देश्य यह है कि इसमें एकता और एकजुटता का संदेश छिपा हुआ है।
अब यह प्रश्न उठता है कि हम लोग कब सुधरेंगे। सुधरने के लिए आवश्यक है की हम लोगों को संकल्प लेना होगा। भारतीय संस्कृति के अनुरूप शाकाहार अपनाते हुए गुरुकुल शिक्षा पद्धति को पुन: अंगीकृत करना होगा। आर्यन जीवन पद्धति को शाश्वत सत्य मानकर स्मार्ट सिटी की जगह स्मार्ट विलेज को विकसित करना होगा। देखा जाय तो स्मार्ट सिटी के फ्लैटों में गाय और बुजुर्गों के लिए कोई प्रावधान नहीं किया जा रहा है। जबकि भारतीय संस्कृति में गौ सेवा और बुजुर्गो के आशीर्वाद के अभाव में मोक्ष प्राप्ति असंभव है। इसलिए इस पर भी विचार किया जाना आवश्यक है।
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