क्या सचमुच जीवन की रफ्तार बढ़ गई है या मन पीछे छूट रहा है?

क्या सचमुच जीवन की रफ्तार बढ़ गई है या मन पीछे छूट रहा है?

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 28 दिसम्बर ::
कुछ समय से ऐसा प्रतीत होता है, मानो हर साल पिछले साल से कुछ अधिक तेज रफ्तार से गुजर रहा है। जनवरी आती है, फरवरी आँख झपकते बीत जाती है, और देखते-देखते दिसंबर दरवाजे पर खड़ा मिल जाता है। यह अनुभव केवल व्यक्तिगत नहीं है, बल्कि सामूहिक है। समाज के हर वर्ग छात्र, नौकरीपेशा, व्यापारी, किसान, गृहिणी, पत्रकार, नेता, सब किसी न किसी रूप में यही कहते मिल जाते हैं कि “समय पता ही नहीं चला कैसे निकल गया।”

एक तरह की भ्रामक स्थिति कभी-कभी मन में निर्मित होने लगती है कि जो रफ्तार और व्यस्तता हम महसूस कर रहे हैं, वास्तव में भी क्या जीवन इतनी ही गति से आगे बढ़ रहा है? या फिर यह केवल हमारी चेतना का भ्रम है, जो सूचना, तकनीक और अपेक्षाओं के बोझ से दब चुकी है?

यह तो निश्चित है कि इस साल के हर महीने बहुत व्यस्त बने रहे। भले ही अपनी व्यावसायिक और पारिवारिक जिम्मेदारियों में व्यस्त हों, पर इसके अतिरिक्त भी आसपास कोई न कोई महत्त्वपूर्ण विषय लगातार चर्चा में बना रहा है कभी राजनीति, कभी युद्ध, कभी महंगाई, कभी बेरोजगारी, कभी धर्म, कभी तकनीक, कभी स्वास्थ्य, तो कभी पर्यावरण।

समय को घड़ी और कैलेंडर से मापा जा सकता है, लेकिन उसे अनुभव मन करता है। बचपन में गर्मियों की छुट्टियाँ अंतहीन लगती थी। स्कूल के बाद खेल का समय कभी समाप्त नहीं होता था। लेकिन आज वही दो महीने किसी फाइल की तरह बंद होकर निकल जाता है।

मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि जैसे-जैसे उम्र बढ़ती है, समय तेज लगता है, क्योंकि हर नया वर्ष जीवन का छोटा अनुपात बन जाता है। पाँच साल के बच्चे के लिए एक साल उसके जीवन का 20 प्रतिशत है, जबकि पचास साल के व्यक्ति के लिए मात्र 2 प्रतिशत। लेकिन यह पूरा सत्य नहीं है। आज का समय केवल उम्र के कारण नहीं, बल्कि सूचनाओं की बाढ़ के कारण तेज़ महसूस होता है।

लोग ऐसे युग में जी रहे हैं जहाँ एक दिन में जितनी सूचना ग्रहण करते हैं, उतनी सूचना शायद पूर्वज पूरे वर्ष में नहीं करते थे। मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, न्यूज चैनल, नोटिफिकेशन, व्हाट्सऐप ग्रुप, सब मिलकर ध्यान को लगातार खंडित करते रहते हैं। एक काम करते हुए दूसरे काम के बारे में सोच रहे होते हैं। भोजन करते समय मोबाइल देखना, परिवार के साथ बैठकर ईमेल पढ़ना, और सोने से पहले अगली सुबह की चिंता करना, यह सब अब सामान्य हो चुका है। जब मन कहीं टिकता ही नहीं, तो समय का अनुभव भी टूट जाता है। दिन तो बीतता है, पर यादें नहीं बनतीं और जब यादें नहीं बनतीं, तो पीछे मुड़कर देखने पर लगता है कि समय बहुत तेज़ निकल गया है।

व्यस्तता यह है कि आज के समय का सबसे बड़ा प्रमाणपत्र बन गया है। जो जितना व्यस्त, वह उतना ही “महत्त्वपूर्ण” माना जाता है। खाली समय होना अब आलस्य का पर्याय बन चुका है, लेकिन प्रश्न यह है कि क्या सच में जरूरी कामों में व्यस्त हैं, या फिर अनावश्यक गतिविधियों में उलझकर खुद को व्यस्त साबित कर रहे हैं? आज का मनुष्य काम में व्यस्त है। काम ढूँढने में व्यस्त है। भविष्य की चिंता में व्यस्त है। अतीत की स्मृतियों में व्यस्त है। दूसरों से तुलना करने में व्यस्त है। इस व्यस्तता में जीना कहीं पीछे छूट गया है।

परिवार कभी जीवन का केंद्र हुआ करता था। शाम को साथ बैठकर खाना, बातचीत, हँसी-ठिठोली, यह सब जीवन की स्थायी स्मृतियाँ बनती थी। आज परिवार साथ तो है, पर एक-दूसरे के भीतर नहीं। हर सदस्य के हाथ में एक स्क्रीन है। बातचीत कम, सूचना अधिक है। रिश्ते निभाए जा रहे हैं, जीए नहीं जा रहे। जब रिश्ते यांत्रिक हो जाते हैं, तब समय भी यांत्रिक हो जाता है। सुबह, दोपहर, शाम, रात, बस चक्र पूरा होता रहता है।

आज का नागरिक केवल अपने जीवन तक सीमित नहीं है। वह हर समय देश, राजनीति, चुनाव, सरकार, विपक्ष, नीतियों और विवादों में उलझा रहता है। चौबीसों घंटे चलने वाली बहसें लगातार उत्तेजित अवस्था में रखती हैं। हर दिन कोई न कोई बड़ा मुद्दा सामने होता है कभी सीमा पर तनाव, कभी धर्म से जुड़ा विवाद, कभी अदालत का फैसला, कभी चुनावी बयान, कभी आंदोलन। इस सतत बेचैनी में मन को विश्राम नहीं मिलता और जब मन को विश्राम नहीं मिलता, तो समय का अनुभव बोझ बन जाता है।

तकनीक ने जीवन को सुविधाजनक बनाया है, इसमें कोई संदेह नहीं है, लेकिन उसने जीवन की गति भी बढ़ा दी है। पहले किसी पत्र का उत्तर देने में दिन लगते थे, अब “Seen” होते ही जवाब की अपेक्षा बन जाती है। अब लोग तुरंत परिणाम चाहते हैं। तुरंत प्रतिक्रिया चाहते हैं और तुरंत सफलता चाहते हैं। धैर्य, प्रतीक्षा और ठहराव यह तीनों मानवीय गुण धीरे-धीरे विलुप्त होते जा रहा है। आज का युवा सबसे अधिक व्यस्त है डिग्री लेने में, नौकरी ढूँढने में, प्रतियोगिता में टिके रहने में। रोजगार की अनिश्चितता ने मनुष्य को लगातार भविष्य में जीने पर मजबूर कर दिया है। जब मनुष्य वर्तमान में नहीं जीता है, तो समय उसे पीछे छोड़ देता है।

कभी त्योहार आत्मा का उत्सव हुआ करता था। तैयारी होती थी, प्रतीक्षा होती थी, उत्साह होता था। आज त्योहार भी कैलेंडर में दर्ज एक “इवेंट” बन गया है। दीपावली आई और चली गई। होली रंगों से ज्यादा तस्वीरों में सिमट गई। नए साल का स्वागत संकल्पों से नहीं, पोस्ट से होने लगा। जब उत्सव केवल औपचारिकता बन जाए, तो समय भी औपचारिक लगने लगता है।

कोविड-19 के बाद समय के प्रति धारणा और बदल गई है। लॉकडाउन में समय ठहर गया था और उसके बाद अचानक दौड़ने लगा। उस दौर ने सिखाया कि जीवन कितना अस्थायी है, लेकिन उस सीख को भी जल्दी भूल गए।

समय को रोका नहीं जा सकता है, लेकिन उसके साथ संबंध बदला जा सकता है। थोड़ी धीमी गति अपनाकर। अनावश्यक सूचनाओं से दूरी बनाकर। रिश्तों को समय देकर। मौन और एकांत को स्वीकार कर। वर्तमान में जीने का अभ्यास करके। जब समय को नहीं, जीवन को केंद्र में रखते हैं, तब समय बोझ नहीं बनता है।
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