सेफ गोल की राजनीति - जब खुद की डाली काटने लगते हैं बड़े लोग

सेफ गोल की राजनीति - जब खुद की डाली काटने लगते हैं बड़े लोग

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 08 सितम्बर ::

मानव सभ्यता का इतिहास गवाह है कि जब इंसान अपनी सीमाओं को भूल जाता है, जब अहंकार बुद्धि पर हावी हो जाता है, तब वह वही गलती करता है जिससे उसका खुद का पतन सुनिश्चित हो जाता है। राजनीति में यह प्रवृत्ति और भी खतरनाक हो जाती है। दुनिया के इतिहास में ऐसे सैकड़ों उदाहरण मिलते हैं जहां नेता अपनी ही बनाई हुई सत्ता, प्रतिष्ठा और लोकप्रियता को अपने हाथों से नष्ट कर बैठते हैं। इसे ही कहा जाता है "सेफ गोल की राजनीति"।
राजनीति में यह "सेफ गोल" सिर्फ एक भाषण की चूक या ट्वीट की गलती नहीं होती है, यह एक मानसिकता होती है, एक प्रवृत्ति होती है, जहां नेता अपने अहम और असुरक्षा की आग में अपने ही किले को जलाने लगते हैं। यह प्रवृत्ति केवल भारत तक सीमित नहीं है, बल्कि विश्वभर में देखने को मिलती है। अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप से लेकर भारत के विपक्षी नेता राहुल गांधी तक, कई उदाहरण ऐसे हैं जो इस कथन को पुष्ट करते हैं।

सेफ गोल एक फुटबॉल शब्द है, जहां खिलाड़ी अपने ही गोलपोस्ट में गेंद मार देता है। राजनीति में भी ऐसा ही कुछ देखने को मिलता है। जब कोई नेता चुनाव के ठीक पहले विवादित बयान देता है। जब कोई पार्टी अपनी ही उपलब्धियों को खारिज कर विपक्ष को मौका देता है। जब कोई सरकार जनता की नब्ज़ समझे बिना फैसला लेती है। यह सब "राजनीतिक सेफ गोल" होता है। ये क्षण केवल हास्यास्पद ही नहीं, बल्कि कई बार घातक भी साबित होता है।

अमेरिका के इतिहास में डोनाल्ड ट्रंप एक ऐसे राष्ट्रपति रहे जो हर कदम पर अपने विरोधियों को नहीं, बल्कि खुद को मुश्किल में डालते रहे हैं। ट्रंप ने मीडिया को "फेक न्यूज" कहकर खारिज किया। परिणामस्वरूप मीडिया उनके खिलाफ और अधिक आक्रामक हो गई। आधी रात को किए गए ट्वीट कई बार बाजार को हिला देता है, डिप्लोमैसी को संकट में डाल देता है। वोटबैंक को खुश करने के लिए दीवार बनाने का वादा, परंतु इससे मेक्सिको के साथ संबंध बिगड़े और अमेरिका की छवि धूमिल हुई। चीन को सबक सिखाने के चक्कर में अमेरिकी कंपनियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। नतीजा यह हुआ कि दुनिया की सबसे शक्तिशाली कुर्सी पर बैठने के बावजूद ट्रंप आज अमेरिकी राजनीति में हास्य का विषय बने हुए हैं।

भारत के सबसे बड़े राजनीतिक घराने के वारिस होने के बावजूद राहुल गांधी की राजनीति का सफर सेफ गोलों से भरा पड़ा है। बिहार चुनाव के समय बीड़ी वाला बयान जनता के मुद्दों से भटककर, अप्रासंगिक बयान देना है। चुनाव के समय या तो चुनाव में अनुपस्थित रहना, या देर से सक्रिय होना। हार के तुरंत बाद छुट्टी पर चले जाना। विपक्षी मुद्दों को समय पर न भुनाना। परिणामस्वरूप सत्ताधारी दल को बढ़त मिल जाती है। राहुल गांधी की सबसे बड़ी चुनौती यह है कि उनकी छवि एक गंभीर राजनेता का अभी तक नहीं बन पाया है। कांग्रेस के भीतर भी यह बात माना जाता है कि राहुल कई बार ऐसे बयान दे देते हैं जो पार्टी के लिए नुकसानदायक साबित होता है।

राजनीति में “सेफ गोल” करने का सबसे बड़ा कारण होता है “अहम”। जब नेता सोचने लगता है कि वह अचूक हैं, तब वह आलोचना सुनना बंद कर देता है। नेतृत्व का भ्रम होता है कि "मैं जो कहूं वही अंतिम सत्य है।" सलाहकारों की कमी हो जाता है और बड़े नेता अक्सर हाँ-में-हाँ मिलाने वालों से घिर जाता है। जनता से दूरियां बनने लगता है और नेताओं को लगता है कि जनता हमेशा उन्हें वोट देगी। अहम के साथ-साथ अपरिपक्वता भी इस प्रवृत्ति को जन्म देती है। जबकि राजनीतिक परिपक्वता का मतलब होता है सही समय पर सही फैसला लेना।

आज का समय 24x7 न्यूज और सोशल मीडिया का है। अब नेताओं की हर बात, हर हावभाव तुरंत वायरल हो जाता है। ट्रंप के ट्वीट पर पूरी दुनिया की नजर रहती थी। राहुल गांधी के भाषण पर सोशल मीडिया मीम बनाने में देर नहीं लगाता है। इस युग में “सेफ गोल” का असर कई गुना बढ़ जाता है। यह सिर्फ चुनावी नुकसान नहीं करता बल्कि नेता की पर्सनल ब्रांडिंग को भी चोट पहुंचाता है।

डोनाल्ड ट्रंप और राहुल गांधी दोनों ही अपनी-अपनी राजनीति के "आउटसाइडर" रहे हैं। ट्रंप पारंपरिक राजनेता नहीं थे, वे बिजनेस बैकग्राउंड से आए थे। राहुल गांधी भले ही राजनीतिक घराने से हों, लेकिन उनका तरीका कई बार अलग दिखता है। दोनों में एक समानता है “बिना सोचे समझे बयान देना”। पर अंतर यह है कि अमेरिका में लोकतंत्र संस्थाओं के कारण ट्रंप को सीमित कर सका, जबकि भारत में कांग्रेस की कमजोर संगठनात्मक स्थिति के कारण राहुल के “सेफ गोल” पार्टी के लिए और अधिक नुकसानदेह बन जाता है।

किसी भी नेता का भविष्य जनता के हाथ में होता है। जब जनता महसूस करती है कि नेता गंभीर नहीं है, वह उसे नकार देती है। 2016 के बाद अमेरिका में धीरे-धीरे ट्रंप की लोकप्रियता गिरने लगी। 2014 के बाद भारत में कांग्रेस का वोट शेयर लगातार घटा। जनता की यह धारणा बदलना कठिन होता है। एक बार जो छवि बन गई, उसे बदलने में वर्षों लग जाते हैं।

नेताओं के लिए सबसे बड़ा सबक यह है कि अहम को नियंत्रित करें। सही समय पर सही बयान दें। सोशल मीडिया का जिम्मेदारी से इस्तेमाल करें। सलाहकार मंडल में विविधता रखें और जनता की नब्ज को समझें।

राजनीति केवल चुनाव जीतने का खेल नहीं होता है, यह विश्वास बनाने का खेल है। जब नेता बार-बार “सेफ गोल” करते हैं, तो वे न केवल अपनी पार्टी को नुकसान पहुंचाते हैं बल्कि लोकतंत्र में विश्वास को भी कमजोर करते हैं। चाहे वह व्हाइट हाउस का राष्ट्रपति हो या संसद का नेता प्रतिपक्ष, सत्ता में रहना एक जिम्मेदारी है। यह जिम्मेदारी तभी निभाई जा सकती है जब नेता अपने अहम को नियंत्रित करें और परिपक्वता से फैसला लें।
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