राष्ट्रीय एकता के ताने-बाने को तोड़ने की साजिश है - जातीय जनगणना  – डॉ. राकेश दत्त मिश्र

राष्ट्रीय एकता के ताने-बाने को तोड़ने की साजिश है - जातीय जनगणना – डॉ. राकेश दत्त मिश्र

जितेन्द्र कुमार सिन्हा, पटना, 02 मई ::

भारत जैसे बहुजातीय, बहुधार्मिक और विविधतापूर्ण देश में जनगणना एक संवेदनशील विषय है। जब यह जनगणना जातीय आधार पर हो, तब यह केवल आंकड़े इकट्ठा करने का कार्य नहीं रह जाता है, बल्कि सामाजिक समीकरणों में भारी बदलाव लाने वाला कदम बन जाता है। हाल ही में भारतीय जन क्रांति दल (डेमोक्रेटिक) के राष्ट्रीय महासचिव डॉ. राकेश दत्त मिश्र ने केंद्र सरकार द्वारा प्रस्तावित जातीय जनगणना के फैसले पर कड़ा विरोध जताया है और इसे 'हिन्दू समाज को विभाजित करने की राजनीतिक चाल' कहा है।

जातीय जनगणना का अर्थ होता है देश की जनसंख्या को जातीय पहचान के आधार पर वर्गीकृत करना। भारत में आखिरी बार पूर्ण जातीय जनगणना 1931 में ब्रिटिश शासन के दौरान हुई थी। स्वतंत्रता के बाद से केवल अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों का आंकड़ा लिया जाता रहा है। हाल ही में कुछ राजनीतिक दलों और राज्य सरकारों ने यह मांग उठाई है कि ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग) की संख्या का भी आधिकारिक रूप से आंकलन किया जाए, जिससे नीतियों और आरक्षण में 'समानुपातिक न्याय' सुनिश्चित किया जा सके।

डॉ. मिश्र ने स्पष्ट रूप से कहा है कि जातीय जनगणना भारत की सामाजिक एकता को खंडित करने की दिशा में एक षड्यंत्र है। उन्होंने वर्तमान सत्ताधारी दल पर आरोप लगाया कि "कल तक जो पार्टी 'बटोगे तो काटोगे' और 'पाकिस्तान को सबक सिखाने' की बात करती थी, वही आज हिन्दू समाज को जातियों में बांट रही है।" यह वक्तव्य सीधे तौर पर उस विरोधाभास की ओर इशारा करता है जो राष्ट्रवाद और जातिवाद के बीच झूलता दिखाई देता है। डॉ. मिश्र का तर्क है कि यह जनगणना 'हिन्दू समाज की एकजुटता' को तोड़ने के लिए किया जा रहा राजनीतिक षड्यंत्र है, जो अंततः भारत की एकता और अखंडता को नुकसान पहुंचा सकता है।

डॉ. मिश्र का वाजिब सवाल है कि "क्या आज के समय में महंगाई, बेरोजगारी, आतंकवाद, किसानों की दुर्दशा से बड़ा मुद्दा जातीय जनगणना है?" इस प्रश्न में देश के आम नागरिक की चिंता स्पष्ट झलकती है। जब देश का युवा रोजगार के लिए भटक रहा हो, किसान आत्महत्या कर रहे हों, आम जनता महंगाई से त्रस्त हो, तब जातिगत जनगणना जैसे मुद्दे को सर्वोपरि रखना अपने आप में कई सवाल खड़े करता है।
राष्ट्रीय महासचिव डॉ. राकेश दत्त मिश्र ने कहा कि जातीय जनगणना समाज को वर्गीकृत करती है। इस वर्गीकरण के कई संभावित दुष्परिणाम हो सकते हैं, जैसे- जातिगत वैमनस्यता बढ़ेगी, एकता में विभाजन होगी और राजनीतिक ध्रुवीकरण। उन्होंने कहा कि भारतीय संविधान निर्माताओं ने जातिगत भेदभाव समाप्त करने का संकल्प लिया था। डॉ. भीमराव अंबेडकर ने आरक्षण की व्यवस्था सामाजिक न्याय के लिए की थी, न कि राजनीति जातिगत के लिए। 

डॉ. मिश्र ने अपने वक्तव्य में युवाओं, संत समाज, बुद्धिजीवियों और राष्ट्रभक्तों से अपील की है कि वे इस 'राजनीतिक जातिवादी षड्यंत्र' के खिलाफ मुखर हों। उन्होंने कहा कि "जो समाज एकजुट नहीं रहता, उसकी दिशा भी बंट जाती है और उसकी दशा भी।" यह बात भारतीय समाज के लिए अत्यंत प्रासंगिक है। 
उन्होंने कहा कि यदि समाज के वंचित तबकों की मदद करनी है तो उसके लिए जरूरी है कि शैक्षणिक सुधार किए जाएं, न कि केवल जाति के आधार पर आरक्षण बढ़ाया जाए। आर्थिक सर्वेक्षण के आधार पर नीति बनाई जाए, जिससे वास्तविक गरीबों को लाभ मिले। जाति को पहचान नहीं, सहअस्तित्व का आधार बनाया जाए। जनगणना को यदि करना ही है, तो वह सामाजिक विकास, शिक्षा, स्वास्थ्य और आर्थिक स्थिति पर आधारित होनी चाहिए न की जाति पर।
डॉ. राकेश दत्त मिश्र का यह बयान केवल विरोध नहीं, बल्कि एक चेतावनी है। उन्होंने कहा कि यदि हमने समय रहते जाति की राजनीति को नहीं रोका, तो सामाजिक समरसता खंडित हो जाएगी। भारत को आगे बढ़ाना है तो जातियों को जोड़ना होगा, न कि आंकड़ों के माध्यम से तोड़ना। जातीय जनगणना को सामाजिक न्याय के नाम पर राजनीतिक औजार नहीं बनने देना चाहिए। 

उन्होंने कहा कि आज आवश्यकता है कि नागरिक एकजुट होकर सरकार से पूछें कि क्या जाति से ऊपर उठकर सोचने का समय नहीं आ गया? क्या हम फिर से एक और बंटवारे की ओर बढ़ रहे हैं? क्या वोट की राजनीति, हमारे समाज को विखंडित करने के लिए जातियों का सहारा ले रही है? डॉ. मिश्र ने अपील किया है कि यह न केवल एक राजनीतिक वक्तव्य है, बल्कि एक सामाजिक चेतावनी है, जिसे नजरअंदाज करना हमारे भविष्य के लिए घातक होगा।
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